Saturday, April 2, 2022

दलित विरोध के सुर-भारत बंद : कितना सही,कितना गलत?

 #दलित विरोध के सुर-भारत बंद : कितना सही,कितना गलत?


सुप्रीम कोर्ट के फैसले का शान्तिपूर्ण विरोध एक सीमा तक लोकतंत्र मे स्वीकार है किन्तु आन्दोलन के नाम पर हिंसा बिलकुल भी क्षम्य नहीं है।यह न केवल न्यायपालिका का ही अपमान है बल्कि बाबा साहब का भी अपमान है।डॉ० अम्बेडकर ने सामाजिक न्याय व सामाजिक समता की बात की है जिसके लिये वर्तमान में हमारे संविधान मे यथोचित व्यवस्थाये मौजूद हैं। दलितों के आर्थिक उत्थान के लिये संविधान मे शिक्षा, रोजगार व  शासन  आदि के क्षेत्र में जहाँ आरक्षण की व्यवस्था मौजूद है ,वही सामाजिक समानता व दलित अधिकारों के संरक्षण हेतु अनेक संवैधानिक उपबंध मौजूद हैं जिसका पर्याप्त लाभ दलित समुदाय को मिल रहा है। सत्ता की निरंकुशता पर रोक लगाने के लिये सुप्रीम कोर्ट को संविधान का संरक्षक बनाया गया है । जिससे दलित और वंचित वर्गों के अधिकारों में  किसी भी कीमत पर रत्ती भर भी कमी न आने पाये। और इसमे सुप्रीम कोर्ट ने अपनी भूमिका का निर्वहन काफी हद तक ईमानदारी से किया है, किंतु सैकड़ों वर्षों की सवर्ण श्रेष्ठता की मानसिकता का पूरा विनाश सवर्णों में पूरी तरह समाप्त नहीं हो सकी है, इसका अपवाद शासनतन्त्र भी नहीं है। वर्तमान मे सुप्रीम कोर्ट का फैसला  SC/ST Act.को बेहद कमजोर करने वाला हैं जिसमे  डीएसपी स्तर के अधिकारी की जांच  के पूर्व एफ.आई.आर.दर्ज नहीं करने का प्रावधान है, जिससे इस कानून का दुरुपयोग रोका जा सके।जो शायद कहीं न कहीं दलितों मे इस आशंका को जन्म देने वाला है कि यह फैसला सवर्ण श्रेष्ठता से प्रेरित है।उस पर मुख्य न्यायाधीश का ब्राहमण होना इस आशंका को और भी बढ़ाने वाला है।किन्तु इस तरह की शंकाएं  निर्मूल हैं क्योंकि न्यायाधीश संवैधानिक उपबन्धों से परे जाकर निर्णय नहीं दे सकते हैं फिर चाहे वो किसी भी जाति या धर्म से ताल्लुक रखते हों। 

  यदि हम ग्रामीण इलाके पर नजर डाले तो अभी भी दलित अपने सामाजिक व आर्थिक अधिकारों के लिये संघर्ष करता नजर आता है, आज भी कहीं कहीं उसे सामंती प्रताड़ना का शिकार होना पड़ रहा है। जो दलित आज सत्ता मे भागीदारी कर रहे हैं या किसी न किसी सरकारी पद पर हैं सिर्फ वही संवैधानिक सुविधाओं का लाभ ऊठा पा रहे हैं और उनकी संख्या ब-मुश्किल से  10% से अधिक नहीं है।इसके विपरीत जो आजादी के सत्तर साल बाद भी ठीक से समाज मे सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं  प्राप्त कर सका है वह आज भी 70 साल पहले का जीवन जी रहा है। उसके लिये आजादी या आरक्षण सिर्फ छलावा ही साबित हो रहा है। सबसे दुखद आश्चर्य तो यह कि स्वयं को दलित हितैषी साबित करने की होड़ मे खुद को आगे दिखाने की कोशिश करने वाले तथाकथित दलित नेता भी दलितो को शोषण से मुक्ति का सब्जबाग दिखाकर सिर्फ उन्हे बर्गलाने व अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने का ही काम करते है , पिसते है बेचारे गरीब, मजबूर दलित.।इसके साथ ही सत्ताधारी दलों द्वारा भी इनका वोटबैंक के रुप मे इस्तेमाल करना भी इन्हें हताश करता है , जो दलित आक्रोश के लिये उत्तरदायी है। भारत बंद जैसे आंदोलन इसी आक्रोश की अभिव्यक्ति हैं। वर्तमान मेंसरकार और हमारे समाज दोनो को दलित व वंचित वर्गों की चिंताओं के प्रति अधिक संवेदनशील होने की जरुरत है।

        भारत बंद आंदोलन के दौरान उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले मे घटी एंबुलेंस रोकने की घटना जिसमे मरीज की मौत हो गई, ने निश्चित ही राजनैतिक आंदोलनों व आक्रोश प्रदर्शनों के घोर  नैतिक पतन व आमानवीयता की पराकाष्ठा को छू लिया है, जिसे किसी भी रूप मे जायज नहीं ठहराया जा सकता है। दलित नेताओं व आंदोलनकारियों को बाबा साहब का यह निर्देश हमेशा याद रखना चाहिये - "लोकतंत्र को मजबूती सिर्फ आपसी भाईचारा व मानवीय मूल्य ही दे सकते हैं। यदि हमने इनको खो दिया तो हम लोकतंत्र भी खो देंगे।" देश भर मे शान्तिपूर्ण आंदोलन के स्थान पर दंगे - फसाद करना निश्चित ही बाबा साहब के विचारों को खुली चुनौती है।ऐसे मे बड़ा आश्चर्य होता है जब कोई हिंसक आंदोलनकारी खुद को अंबेडकरवादी बताता है। क्या ऐसे  तथाकथित अंबेडकरवादियों को तनिक भी शर्म महसूस नहीं होती है? क्या 'जय भीम' का नारा लगाने वाले तथाकथित अंबेडकरवादियों ने कभी ध्यान देकर बाबा साहब का साहित्य पढ़ा है? शायद नहीं , तभी दलितों का भारत बंद आंदोलन हिंसक व अमानवीयता की हद पार कर गया। दलित नेता व तथाकथित अंबेडकरवादी भविष्य मे आंदोलन के पहले कम से कम बाबा साहब को  एक बार ठीक से जरूर पढें , ताकि कम से कम बाबा साहब का सम्मान तो सुरक्षित रह सके, अन्यथा अंबेडकर  जैसा महान विचारक मजाक ही बनकर रह जायेंगे। किसी भी महापुरुष की महानता का स्तर उसके अनुयायी निर्धारित करते है।

      सबसे अहम और जरूरी बात कि आंदोलन या आक्रोश व्यक्त करते समय किसी भी समुदाय की धार्मिक व सांस्कृतिक आस्था पर हमला न किया जाये क्योंकि लोकतंत्र की खूबसूरती तभी है जब देश मे विविध विचारों   और संस्कृतियों का सहअस्तित्व कायम रहे।इसके लिये सरकारों द्वारा दृढ़ता से संवैधानिक मूल्यों का संरक्षण सुनिश्चित किया जाना चाहिये। भारत बंद के दौरान केन्द्र सरकार व प्रदेश सरकारों का रवैय‍ा बेहद ही हताश करने वाला है।भारत बंद आंदोलन के दौरान देश में कहीं कहीं हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को जय भीम के नारे के साथ जूते -चप्पलों से पीटना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।इसी प्रकार कहीं-कहीं  बाबा साहब की मूर्ति के तोड़ने की  घटनाएँ घटी हैं,इन्हे भी किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता है।इसके साथ ही देशभर मे भड़की हिंसा व तोड़-फोड़ की घटनाओं ने भी केन्द्र व राज्य सरकारों के कानून-व्यवस्था संबंधी दावों की हवा निकालकर रख दी है।केन्द्र व राज्य सरकारों को भविष्य मे बड़बोलेपन से बचकर कानून - व्यवस्था को चाक-चौबंद करने की जरूरत है,जिससे भविष्य में राजनैतिक आंदोलनों के दौरान देश को जान-माल का नुकसान न उठाना पडे़ जैसा इस दलित आंदोलन के दौरान हुआ। उपद्रवियों को किसी भी कीमत पर बक्शा नहीं जाना चाहिये।

                                            -  एस. पी.गुप्त   

                                       (प्राध्यापक,शिक्षा संकाय  )

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