जमीं का जर्रा-जर्रा बोलता है,
लबों की तरह ये दिल बोलता है।
राज जो भी दफन हैं जेहन में,
बड़े आहिस्ता से ये खोलता है।
कभी चुपचाप सुनना धड़कनों को,
जुबाँ की तरह ये दिल बोलता है।
शिकायत है उनसे,मगर कैसे करें?
दिये के जैसे ये दिल डोलता है।
नमीं आँखों की दिल में आ गई है,
जख्म जज्बात दिल में घोलता है।
©सूर्यप्रकाश गुप्त /०૪-१०-२०२३
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