#कैफियत
आदमी बड़ा हो चला है मजहबों से अब,
यहाँ खुदा की नही, सिर्फ हैसियत उसकी।
गढ़ लिये हैं अकीदों से कई बुत उसने,
इबादतगाहों में फैली है वहशियत उसकी।
कत्ल, धोखा, बेईमानी जैसे बुत उसके,
इबादतों में यही दिखती कैफियत उसकी।
मन्दिर-ओ-मस्जिद की जगह मयखाने,
उसकी जुबान कब होती नीयत उसकी।
हर तरफ बस जंग का कारोबार यहाँ,
अमन-ओ-आमान कब तरबियत उसकी।
हर इक फूल बारूद में यहाँ बेसुध हैं,
मौसमी तासीर में सिर्फ जुल्मियत उसकी।
मौत की रंगत लिये हँसी यहाँ मिलती है,
कफ़न के साथ खड़ी मनहूसियत उसकी।
©सूर्यप्रकाश गुप्त/२०/१०-२०२३
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