#सनातन_हिन्दू_धर्म_में_ब्रह्म_की #अवधारणा
(प्रथम भाग)
सनातन हिन्दू धर्म से बाद विकसित होने वाले कुछ पंथ सनातन हिन्दू धर्म का मूर्तिपूजक कहकर मजाक उड़ाते रहते हैं। यह बिलकुल वैसा ही है जैसे अपने पिता के त्याग और गंभीर व्यक्तित्व से परिचित हुए बिना ही सतही स्तर पर पुत्रों द्वारा मजाक उड़ाया जाता हो। आश्चर्य तो तब होता जब यही पंथ सनातन हिन्दू धर्म की परंपराओं, विश्वासों को थोड़ा बहुत परिवर्तन के साथ स्वीकारकर गर्वोक्ति का अनुभव करते हैं। बावजूद इसके बड़ी बेशर्मी से गौरवशाली सनातन परंपराओं का मजाक उड़ाते रहते हैं। किसी भी पंथ(कुछ लोग भ्रमवश जिसे धर्म कहते हैं) का सबसे महत्त्वपूर्ण केन्द्र सर्वशक्तिमान सत्ता पर आस्था और विश्वास होता है। यह सर्वशक्तिमान सत्ता अलग -अलग पंथों मे अलग-अलग नामरूपों(एकक सत्ता के रूप मे) प्रचलति है, जैसे सनातनी हिन्दू के लिये #ब्रह्म( निराकार सत्ता>साकार= अवतार+देवता+मनुष्य+जीवजगत), इस्लाम पंथियों के लिये #अल्लाह/खुदा, ईसाई पंथियों के लिये #गॉड की अवधारणा आदि।
सनातन हिन्दू धर्म सहित दुनियाँ के सभी धर्मों मे एक सर्वशक्तिमान सत्ता की संकल्पना की गयी किन्तु फिर भी सनातन हिन्दू धर्म का प्रचार विधर्मियों(गैरसनातनी) इस रूप मे किया जाता है जैसे सनातन हिन्दू समाज मूढ़ हो, अज्ञानी हो, एवं मूर्तिपूजा मे जकड़ा हुआ एक जड़ समाज हो किन्तु वास्तविकता इसके बिलकुल विपरीत है। विश्व के जितने भी धर्म विकसित हुए हैं उनके मूल मे सनातन वैदिक विचार ही केन्द्रीभूत हैं। इस लेख का उद्देश्य न केवल विधर्मियो के इस भ्रमजाल और मिथ्याचार का खण्डन करना है अपितु वेद, उपनिषद एवं सनातन धर्म की गौरवशाली परंपराओं का अध्य्यन न कर पाने वाले अपने सनातनी हिन्दू समाज मे धार्मिक आत्मविश्वास एवं स्वयं के सनातन परंपरा का उत्तराधिकारी होने की गौरवानुभूति कराना भी है। इसके साथ ही इस लेख का उद्देश्य ब्रह्म(ईश्वर) की अवधारणा के सन्दर्भ मे उन्हे किसी भी विधर्मी द्वारा फैलाये जाने वाले मिथ्यावादों का तीक्ष्णता से खण्डन करने निमित्त योग्यता से पोषित करना भी है। यहाँ ब्रह्म(निराकार सत्ता) एवं उससे उद्भूत साकार सत्ता(अवतारी सत्ता) का संक्षेप मे #केनोपनिषद के विशेष सन्दर्भ मे किया जायेगा।
#ब्रह्म (निराकार अद्वितीय सर्वशक्तिमान सत्ता)
ब्रह्म की अवधारणा स्पष्ट करने मे केनोपनिषद के कुछ श्लोक विधर्मियों की भ्रान्तियों के निवारण हेतु काफी सहायक हैं। इश श्लोक मे मूर्तिपूजा को निरर्थक माना गया केवल ब्रह्म की अनुभूति को ही सार्थक समझा गया है।
"यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।"(श्लोक-૪)
इस श्लोक मे स्पष्ट उल्लिखित है कि जिस ब्रह्म को वाणी शब्दों से वर्णित नहीं कर सकती,उस वाणी बोलने का सामर्थ्य ब्रह्म के बनाये नियमों से ही प्राप्त होता है,उसको ही तू ब्रह्म जान न कि उनको(भिन्न-भिन्न देवी देवताओं की) जिसकी संसारी लोग उपासना करते हैं। इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि विश्व मे #एकैश्वरवाद का प्रकाश सनातन वैदिक धर्म से ही प्रकाशित हो रहा है।
केनोपनिषद का केवल एक ही श्लोक एकैश्वरवाद की घोषणा नहीं करता वरन् अनेक श्लोक उपलब्ध है जो एकैश्वरवाद की अवधारणा सनातन हिन्दू परंपरा का मूल घोषित करते हैं। एक उदाहरण देखें-
"यच्चक्षुषा न पश्यन्ति येन चक्षूंषि पश्यति,
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।"( श्लोक -६)
यहाँ पर हमारे ऋषियों ने स्पष्टतया मूर्तिपूजा/मानव पूजा का निषेध करके सर्वशक्तिमान ब्रह्म की उपासना की शिक्षा दी है। यहाँ पर ऋषि जिज्ञासु शिष्यों को ब्रह्म की उपासना का ज्ञान देते हुए कहते हैं -'जो ब्रह्म आँखो से नहीं देखता है न दिखायी देता है उसी ब्रह्म के नियमों की शक्ति से आँखे देखने मे समर्थ होती हैं उस शक्ति प्रदाता को ही तू ब्रह्म जान तथा आँखों से देखने योग्य जिन वस्तुओं की उपासना( मूर्तियाँ आँखो से देखने योग्य हैं)सांसारिक लोग करते हैं वह ब्रह्म नहीं है।
ब्रह्म सर्वव्यापक सत्ता है वह प्रत्येक भूत(जड़-चेतन पदार्थ) मे विद्यमान रहकर सृष्टि का संचालन करता है। केनोपनिषद के चतुर्थ खण्ड के एक श्लोक इसका स्पष्ट उद्घोष करता है-
"सा ब्रह्मेति ब्राह्मणो वा एतद्विजये महीयध्वमिति ततो विदां चकारब्रह्मेति।" (श्लोक -२६)
यहाँ ऋषि स्पष्ट उद्घोष करते हैं कि जीवात्मा अपनी शुद्ध बुद्धि के प्रभाव से ब्रह्मविद्या प्राप्त करता है उसे बोध रहता है कि सब देवों( इन्द्रियों) की सफलता ब्रह्म की ही सफलता है। यहाँ स्पष्ट है कि ब्रह्म सर्वव्यापक है प्रत्येक जीवात्मा मे व्याप्त है और उसका नियमन करता है।उसकी इन्द्रियों(कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों) को सफलतापूर्वक क्रियायें सम्पादित करने की शक्ति प्रदान करता है।
- शेष अगले अंक में।
(सर्वाधिकार सुरक्षित : सूर्यप्रकाश गुप्त/२५-०५-२०२१)
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