मजहब और आदमी
आदमी मजहब को इस तरह ढोता है,
जैसे आदमी ने नहीं,
मजहब ने आदमी को बनाया हो!
आदमी ने अगर मजहब बनाया है,
मजहब आदमी पर भारी क्यों है?
मजहब ने यदि आदमी बनाया है,
तो शैतानी आमाल क्यों हैं?
बड़ी अबूझ पहली सी,
बन कर रह गयी है जिन्दगी!
इसका समाधान क्या हो सकता है,
इसी उधेड़बुन मे जिन्दगी,
को जोत रहा है आदमी,
बुद्धि का हल चलाकर,
शायद कोई अंकुर फूटे,
मजहब की कोख से,
या फिर आदमी के दिमाग से।
आश्चर्य तो यही है कि दिमाग भी,
मजहबी नशे मे धुत्त मिलता है!
शायद आदमीयत पसंद नहीं आती,
मजहबी जलसों को।
दिमाग को आदमी ने बन्द कर रखा है,
मजहबी ताले से किताबी कोठार मे,
जहाँ , प्रकाश की किरण तो क्या,
अँधेरा भी दबे पाँव जाने से हिचिकता है।
आत्मा शायद निकाल सके,
इस समस्या का सटीक हल,
लोग कहते है ये आत्मा-शुद्ध-बुद्ध-निर्मल है,
इसके पास हर समस्या का हल है।
पर ये क्या मजहबों ने,
आत्मायें भी गिरवी कर रखी हैं,
सुनारों की तरह।
अलग-अलग अलमारियों में,
सुनार रखता है जैसे,
अलग-अलग किस्म के जेवरात!
अलग-अलग चमक के साथ,
सारे जेवरात भ्रमित करते हैं..!
आदमी क्या करे?
कहाँ जायेगा मजहबों को छोड़कर
एक धोबी के बंधे गधे की तरह,
उसकी भी आदत पड़ गयी है,
मजहबी आमाल ढोने की।
मजहबी आमाल ढोना,
आदमी और आदमीयत ढोने से,
कहीं ज्यादा सरल है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित : सूर्यप्रकाश गुप्त/१२-०४-२०२०)
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